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बयानों का भँवर,रामचरित मानस की चौपाइयों पर विवाद से लेकर भागवत तक…

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रामायण की चौपाइयों को लेकर उठे विवाद को थामने के लिए संघ प्रमुख मोहन भागवत आगे आए हैं। उन्होंने इस विवाद का ज़िक्र तो नहीं किया, लेकिन परोक्ष रूप से उनका मंतव्य विवाद को थामना ही है। वे कहते हैं ईश्वर ने हम सबको एक जैसा बनाया। हमें जातियों में पंडितों ने बाँटा। इस जातिवाद का फ़ायदा दूसरों ने उठाया। दूसरों से उनका मतलब आज़ादी से पहले अंग्रेजों ने और बाद में तथाकथित राजनीतिक पार्टियों ने।

पहले अंग्रेजों पर आते हैं। सब जानते हैं – साम्राज्य की ख़ातिर गोरों ने जिन अलग-अलग, असमान लोगों को ठोक- पीट कर एक किया था, राज को लम्बा खींचने के लिए वे उन्हीं सब को टुकड़ों को बाँटने लगे। उन्होंने ध्येय बनाया कि केवल अंश, केवल टुकड़े ही वास्तविक हैं। समग्र, सम्पूर्ण तो महज़ गढ़ी हुई कल्पना है।

टुकड़ों को उन्होंने आश्रय और सहारा दिया। टुकड़ों को, यानी ग़ैर हिन्दुओं को, क्षेत्रीय भाषाओं को, जातियों को और समूहों को… और जो उनके गणित से मिशनरियों को सर्वाधिक सुलभ थे- भोले- भालेआदिवासी और अछूतों (तब) को।

अफ़सोस यह है कि आज़ादी के बाद हमारे राजनीतिक दलों ने भी अंग्रेजों की यही परम्परा क़ायम रखी। बाँटो और राज करो! गोरे अंग्रेज चले गए और हम काले अंग्रेजों की गिरफ़्त में आकर टुकड़े-टुकड़े होते गए। आज भी हो रहे हैं।

दरअसल, आज़ादी के बाद कुछ राजनीतिक दलों ने मिशनरियों द्वारा प्रारम्भ भर्त्सनाओं को न सिर्फ़ आगे बढ़ाया, बल्कि कई गुना प्रचंडता ये उन्हें उकसाया। इन दलों के पास एक लुभावनी सम्भावना थी कि अपने को शोषित महसूस करके ये तबके जब क्षुब्ध होंगे, उत्तेजित होंगे, तो इनमें से अनुयायी निकल कर आएँगे। गरीब, आदिवासी और वंचित तबका इनके इस दुष्प्रचार का स्वाभाविक लक्ष्य था। दरअसल, लोगों की भावनाओं, उनके दुख में ये दल न्याय की संभावना तलाश रहे थे। न्याय उन तबकों को तो बरसों-बरस नहीं मिल पाया, राजनीतिक दलों को वोट ज़रूर भर- भर कर मिले।

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इन्हीं वोटों की तलाश में अब रामायण की चौपाइयों को निशाना बनाया जा रहा है। चौपाइयों को जातिवाद से जोड़कर उनकी तरह- तरह की व्याख्या की जा रही है। वास्तविकता यह है कि कोई भी ग्रंथ किस कालखण्ड में लिखा जाता है और तब क्या परिस्थितियाँ रही होंगी, उसकी हम कई साल बाद आज के समय में तुलना नहीं कर सकते हैं। सकारात्मकता अगर उन्हीं ग्रंथों में देखी जाए तो कल को सुधारने की बड़ी गुंजाइश होती है।

राजनीतिक अंधेपन में लेकिन यह सब नहीं सूझता। जहां तक संघ प्रमुख का सवाल है उनका मत सही है लेकिन वे हिन्दुओं के बिखराव को इसलिए रोके रखना चाहते हैं क्योंकि इसमें उनका अपना हित भी है। भाजपा कभी नहीं चाहती कि समग्र हिन्दुओं को जातियों में बाँटा जाए। वह तमाम जातियों को एक सूत्र में बांधे रखना चाहती है। उसका बहुमत इसी पर निर्भर है।

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